Monday, 26 January 2009

ये है हमारा लोकतंत्र .

हम है स्वतंत्र

हम है गणतंत्र

ये है हमारा लोकतंत्र ।

यही थे कभी लाखो संत
नहीं बचा उनका कोई मंत्र

ये है हमारा लोकतंत्र ।

यही था राजा नन्द
यही चला था चानाक्यमंत्र

ये है हमारा लोकतंत्र .

यही कभी था राजतन्त्र

यही कभी थे रामचंद्र

ये है हमारा लोकतंत्र .

यही थे निराला और पन्त

यही थे प्रेमचंद

ये है हमारा लोकतंत्र .

यहाँ का बिगडा अब न्यायतंत्र

रो रहे बेचारे गरीबजन

ये है हमारा लोकतंत्र .

यहाँ है फैला आतंक

हो रहा है विकास मन्द

ये है हमारा लोकतंत्र .

यहाँ का बिगडा शासन तंत्र

यहाँ है अब निरंकुश तंत्र

ये है हमारा लोकतंत्र .

ये है एक भ्रष्ट तंत्र

ये बना है अब हमारा मंत्र

ये है हमारा लोकतंत्र .

ये है हमारा लोकतंत्र .


Friday, 23 January 2009

भारतीय मुसलमान आशाएं व आशंकाएं

आतंकवाद की आग के साथ इस्लाम और मुसलमान का नाम कुछ इस तरह जुड़ गया है कि इसकी आंच से भारतीय मुसलमान भी सुरक्षित नहीं हैं. उनके लिए स्वयं को अलग कर पाना उस समय और भी मुश्किल हो जाता है, जब भारत को अपना तीसरा शत्रु मानने वाला ओसामा बिन लादेन - ओसामा के दूसरे दो शत्रु अमेरिका और इस्राइल हैं - मुसलमानों का नायक बन जाता है.
यह वह आतंकवादी है जिसने इस्लाम धर्म के जेहाद की शब्दावली को ही बदल डाला है और जो कई मौकों पर काफिर भारत को मटियामेट कर देने की कसम खा चुका है. ऐसी परिस्थिति में मुसलमान विरोधी प्रचार करने वालों को एक ठोस दलील मिल जाती है. फिर शुरू होता है संघ परिवार का वह मुस्लिम विरोधी प्रचार जिसकी जड़ें उस राष्ट्रीयता से जुड़ी हुई हैं जो इस्लाम धर्म ही को भारत माता के लिए एक अभिशाप समझता है. संघ ने बड़ी चतुराई से मुसलमानों के खिलाफ यह दुष्प्रचार किया है कि मुसलमान भारत के मूल निवासी नहीं हैं. इनके पूर्वज आक्रमणकारी थे. मुसलमानों के खिलाफ जिस बात को सबसे ज्यादा प्रचारित किया गया है, वह है उनकी असहिष्णुता. इसके लिए उन इस्लामी देशों का खासतौर पर जिक्र किया जाता है, जहां गैर मुसलमानों के साथ दूसरे दर्जे के नागरिकों जैसा बर्ताव किया जाता है. मुसलमानों के बारे में यह धारणा भी आम है कि सरकार नाजायज रियायतें देकर उनका तुष्टिकरण करती है. मुसलमानों के बारे में यह तो दूसरों की प्रचलित धारणाएं थीं, लेकिन स्वयं मुसलमानों की भी खुद को लेकर कुछ धारणाएं हैं. मसलन आम ही नहीं प्रबुद्ध मुसलमान भी यही मानते हैं कि इस देश में उनके साथ सरासर अन्याय हो रहा है और उनके लिए इस देश की न्याय व्यवस्था तक ईमानदार नहीं रही. उनका प्रबल मत है कि 12 मार्च, 1993 को मुंबई के बम विस्फोटों के अतिरिक्त देश भर में जितने भी बम विस्फोट हुए हैं उनमें एक भी मुसलमान लिप्त नहीं है, बल्कि एक बड़ी साजिश के तहत मुस्लिम युवकों को आतंकवाद के झूठे मुकदमों में फंसाया जा रहा है. स्वतंत्रता के बाद से नौकरियों में उनके साथ भेदभाव किया जा रहा है. बार-बार दंगे इसलिए करवाए जाते हैं ताकि मुसलमान कभी भी स्वाश्रित न हो सकें. आम मुसलमानों का सबसे बड़ा दुख है कि उनकी राष्ट्रीयता पर हमेशा प्रश्नचिन्ह लगाया जाता है.
मुसलमानों पर किए जाने वाले संदेहों और उनके भीतर से उठने वाले सवालों में ही कहीं निहित हैं वह उत्तर, जिन तक पहुंचने में न उन्हें कोई दिलचस्पी है जो यह प्रश्न उठाते रहे हैं और न ही उन्हें जो इन प्रश्नों से आहत हैं. स्वतंत्रता के बाद से इतना वक्त बीत चुका है कि भारतीय मुसलमानों के भविष्य पर नए दृष्टिकोण से विचार करना होगा. वह नस्ल अब नहीं रही जिसने आजादी के बाद ‘मुसलमानों के यूटोपिया’ पाकिस्तान पर अपनी जन्मभूमि को तरजीह दी थी. अब वह नस्ल भी बूढ़ी हो चुकी है जो 1962 के भारत-पाक युद्ध के दिनों में छिप कर धीमी आवाज में पाकिस्तान रेडियो सुना करती थी. आज उस नस्ल पर भी उम्र का भारी साया पड़ चुका है जो पाकिस्तानी क्रिकेट टीम के जीतने पर अपनी गलियों में पटाखे छोड़ती थी. 1977 में केंद्र में पहली गैर कांग्रेसी सरकार की स्थापना के चमत्कार के बाद मुसलमानों की सोच में कुछ तब्दीली आई. 1980 के बाद खाड़ी के देशों में जाने वाले भारतीय मुसलमानों ने अपनी कौम के पाकिस्तानी भाइयों को करीब से देखा तो उन्हें पहली बार अनुभव हुआ कि पाकिस्तानियों के लिए वे उनके ‘मुसलमान भाई’ नहीं बल्कि ऐसे भारतीय मुसलमान हैं जिनका ईमान मुकम्मल नहीं है और जो काफिरों में रहते हुए काफिरों जैसे हो गए हैं. यहीं से शुरू हुआ था उनका पाकिस्तान से मोहभंग.
अफगानिस्तान पर कब्जे के बाद तालिबान का पिशाच धर्म का चोला पहन कर पहले पाकिस्तान में घुसा और फिर सिमी का पहचान पत्र हासिल करके इस्लामी राष्ट्र के मार्ग से भारत में प्रवेश कर गया
आजादी के बाद के तीस बरसों में एक पीढ़ी गुजर चुकी थी और एक पीढ़ी जवान हो गई थी कि 1984 में शाहबानों के तलाक के मुकदमे में सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने मुसलमानों में हलचल मचा दी. हकीकत यह थी कि इस फैसले ने उन रुढ़िवादी मुसलमानों को विचलित कर दिया था जो मुस्लिम समाज पर अपनी पकड़ उसी तरह मजबूत रखना चाहते थे जिस प्रकार 17वीं शताब्दी तक ईसाइयों पर ही नहीं ईसाई बाहुल्य देशों पर भी चर्च का वर्चस्व कायम था. यह अजीब विडंबना है कि जिस इस्लाम में पोप जैसे किसी धर्म गुरू का कोई स्थान नहीं है, उसके मुल्लाओं में पोप जैसा धार्मिक रुतबा रखने की लालसा अब तक भरी है. शाहबानो के मुकदमे से खौफ खाए इन्हीं रुढ़िवादी मुल्लाओं ने अपने निहित स्वार्थो के लिए देश की सर्वोच्च अदालत के फैसले के खिलाफ पूरे देश में बड़ा आंदोलन खड़ा कर दिया. आम हिंदू चकित था कि सरकारी नौकरियों में सिर्फ 6 प्रतिशत और गरीबी रेखा के नीचे 40 प्रतिशत जगह पाने वाले इन मुसलमानों ने अपनी आर्थिक मांगों को लेकर तो आज तक ऐसा कोई आंदोलन नहीं किया. तो फिर एक 70 वर्षीय तलाकशुदा बुढ़िया को केवल तीन सौ रुपए गुजारा देने के अदालती फैसले में ऐसा क्या है कि ये उसके खिलाफ जीवन-मरण की लड़ाई लड़ रहे हैं? वोट बैंक खोने के डर से राजीव गांधी की नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार ने संसद में एक अध्यादेश लेकर सुप्रीम कोर्ट का फैसला बदल दिया. यह भारत के इतिहास का वह टर्निग प्वाइंट था, जहां से देश की राजनीति को धर्माधता की उस अंधी सुरंग में प्रवेश करना था जिसका रास्ता अयोध्या की बाबरी मस्जिद से होकर गुजरता था.
जिन हिंदुओं को शाहबानो के प्रति मुसलमानों की नफरत समझ में नहीं आ रही थी उनकी परेशानी को संघ ने इस विचित्र तर्क के साथ दूर कर दिया कि मुसलमान सुप्रीम कोर्ट के फैसले को अगर मान लेते तो जिस आसानी से तलाक देकर वे तीन-चार शादियां कर लेते हैं वह संभव न होगी. ऐसे में वे हिंदुओं से अधिक आबादी बढ़ाने का अपना गुप्त मंसूबा पूरा नहीं कर सकेंगे और भारत पर फिर कब्जा करने का उनका मकसद पूरा नहीं होगा! सीधा सा ये गणित आम हिंदुओं को आसानी से समझ में आ गया पर मुसलमान ही नहीं समझ सके अपने इस कथित धार्मिक आंदोलन की उस प्रतिक्रिया को जो आठ वर्ष बाद राम जन्मभूमि मंदिर के भयावह आंदोलन के रूप में सामने आने वाली थी.
1971 में इरान में आयतुल्ला खुमैनी के इस्लामी इंकलाब ने भारत सहित बाकी दुनिया के तमाम रूढ़िवादी मुसलमानों का हौसला बढ़ा दिया था. खुमैनी शिया संप्रदाय के धर्मगुरु थे. शिया और सुन्नी संप्रदाय में गत 1400 सालों से तनाव चला आ रहा है मगर खुमैनी शिया ही नहीं उन सुन्नियों के भी नायक बन गए थे जिनके मन में कहीं इस्लामी राष्ट्र के लिए नरम गोशा था. 1991 में सोवियत संघ के विघटन के बाद अफगानिस्तान में कट्टर रुढ़िवादी तालिबान अमेरिका और पाकिस्तान की सहायता से अपना वर्चस्व स्थापित कर चुके थे. उनकी जीत को तमाम भारतीय मुसलमानों ने भी, इस्लाम की जीत और राष्ट्रपति मुजीबुल्ला की पराजय और उनकी दर्दनाक हत्या को कम्युनिज्म की पराजय के तौर पर देखा था. 1992 में बाबरी मस्जिद के विध्वंस के बाद भाजपा और संघ ने भी मुसलमानों के खिलाफ नफरत को पुख्ता करने में सफलता प्राप्त कर ली.
अफगानिस्तान पर कब्जे के बाद तालिबान का पिशाच धर्म का चोला पहन कर पहले पाकिस्तान में घुसा और फिर सिमी का पहचान पत्र हासिल करके इस्लामी राष्ट्र के मार्ग से भारत में प्रवेश कर गया. बाबरी मस्जिद विरोधी आंदोलन ने हिंदुओं में मुसलमानों के खिलाफ दबे उस क्रोध को एक हिंसक दिशा दे दी, जो शाहबानो केस में संघ ने पैदा किया था. इस बार मुसलमानों की ओर से बाबरी मस्जिद विवाद पर सुप्रीम कोर्ट के निर्णय को मान लेने का प्रस्ताव रखा गया तो संघ ने आस्था के नाम पर उसे स्वीकार करने से ठीक वैसे ही इंकार कर दिया जिस प्रकार शाहबानो के केस में मुसलमानों ने इंकार किया था! नतीजा बाबरी मस्जिद विध्वंस के रूप में सामने आया था. इस के बाद हुए दंगों ने एकदम से पूरे देश का माहौल बदलकर मुसलमानों में ऐसा भय पैदा कर दिया जिसने समूची व्यवस्था पर से उनका विश्वास उठा दिया. अचानक ही 1977 में कायम की गई सिमी ने मुस्लिम युवकों में और 1926 से स्थापित ‘तबलीगी जमात’ ने आम मुसलमानों में वह जगह बना ली जो उन्हें अब तक नहीं मिली थी. आम मुसलमानों में मजहब के नाम पर धर्माधता, दाढ़ी और बुर्के की शक्ल में फैलती चली गई. सबसे हैरत की बात थी कि उर्दू अखबारों ने सिमी की धर्माधता और उसकी जेहादी गतिविधियों की कभी आलोचना नहीं की. उनकी यह नीति रही है कि जिस व्यक्ति या संगठन के साथ इस्लाम शब्द जुड़ा हो उसकी आलोचना में एक भी शब्द भी प्रकाशित नहीं किया जाएगा, वह चाहे संपादक के नाम पाठक का कोई पत्र ही क्यों न हो. जिस समाज में यह सूरते हाल पैदा कर दी जाए उसका मानस क्या होगा?
बाबरी मस्जिद की घटना का एक रौशन पहलू यह भी है कि असुरक्षा की जिस भावना ने उन्हें धर्माध शक्तियों की ओर ढकेला था उसी ने उन्हें आत्मनिर्भर होने के लिए भी प्रेरित किया. मुसलमानों में शिक्षा का महत्व काफी बढ़ा. वह नौकरियों पर आश्रित न रह हर छोटे-मोटे कारोबारों में लग गए. आज तक भारतीय मुसलमानों को किसी घटना ने इतना आहत और असुरक्षित महसूस नहीं कराया था जितना कि मुंबई और गुजरात के दंगों ने. व्यवस्था के अत्याचार और अन्याय के अहसास का नतीजा ये हुआ कि कभी उच्च शिक्षा का लक्ष्य रखने वाले मुस्लिम युवा सरहद पार करने लगे. इसकी जिम्मेदारी किसके सिर रखी जाएगी?
1878 में मुस्लिम सुधारवादी विचारक सर सैयद अहमद खान ने मुसलमानों को उदारवादी बनाने के विचार से, मोहम्मडन कॉलेज के नाम से अलीगढ़ में भविष्य के सबसे बड़े मुस्लिम विश्वविद्यालय की जो नींव रखी थी. वह आज रुढ़िवादी आंदोलनों का गढ़ बन चुका है. स्वतंत्रता से पूर्व सरकारी उपक्रमों में मुसलमानों का अनुपात 18 प्रतिशत था वह आज घट कर 8 प्रतिशत पर पहुंच गया है. साठ साल बाद भी मुसलमान आज वहीं ठगा हुआ सा खड़ा है जहां वह 60 साल पूर्व खड़ा था. लेकिन उसे अपने ठगे जाने का एहसास शायद आज भी नहीं है.

Thursday, 8 January 2009

मुख्‍यमंत्री के नाम पत्र

28 नवंबर 2008
आदरणीय नीतीश जी,
24 नवंबर 2008 को आपने बतौर मुख्‍यमंत्री तीन वर्ष का कार्यकाल पूरा कर लिया। अखबारों में निकले बडे-बडे विज्ञापनों को हमने देखा जो आपकी सरकार के कार्यों का बखान कर रहे हैं। और हमने इनकी सच्चाई भी देखी है । हमने आपके तीन वर्ष के कार्यकाल को काफी उत्‍सुकता से देखा है । देखने का कारण भी था, हमारी कल्पना ने भी आपसे ज्‍यादा उम्‍मीदें की थीं। आप गंभीर अनुभवी और नए विचारो के धनी हैं। आपके इन्ही गुणों के कारण हमने आपको चुना था। उस वक्त लगा कि हमारे बिहार को भी एक स्पार्टन मिल गया है। हमारे बिहार को भी एक नेहरु मिल गया है। आपके कार्यकाल के हर दिन को हमने बडी उत्सुकता से देखा है। इन तीन वर्षों में हमने बहुत कुछ खोया, बहुत कुछ पाया। महिलाओं को 50 फीसदी आरक्षण देने वाला बिहार पहला राज्य बना। शिक्षकों की भी खूब बहाली हुई। कॉलेजों में नियमित कक्षाएं भी चलने लगीं। आपने कानून व्‍यवस्‍था की भी स्थिती कुछ हद तक ठीक की।
अस्पतालोंकी भी हालत अच्छी हुई। सडकों को भी ठीक किया गया। कुल मिलाकर आपने कहा कि इंफ्रास्ट्रक्चर ठीक हो रहा है। हमने इन दिनों बाढ की विभिषिका भी झेली। साथ ही अपने छात्र भाइयों का असम और महाराष्‍ट्र में अपमान भी झेला। महाराष्‍ट्र हो या बाढ दोनों ही बार काम से ज्‍यादा हमने राजनीति देखी।
आप जब सत्‍ता में आए तो आपने विकास की बात की जैसे नब्बे के दशक में सत्‍ता में आने पर लालू जी ने सामाजिक न्‍याय की बात की थी। उन्होनें सामाजिक न्‍याय का कितना ख्याल रखा यह भी हम सभी जानते हैं। आपके भी कार्यकाल के तीन साल पूरे हो चुके हैं। आधे कार्यकाल से ज्यादा वक्त गुजर चुका है। विकास की बात करें तो आधे बिहार का भी विकास नहीं हुआ है। जो कार्य आपने आरंभ करवाए थे वो या तो बंद हैं या फिर धीमी गति से चल रहे हैं। कानून व्यवस्‍था भी चरमराने लगी है। यह सब मिसमैनेजमेंट के कारण हो रहा है। हमने आपको स्पार्टन की तरह देखा था। स्‍पार्टन यूनान के स्पार्टा शहर के लोगों को कहते थे। वो काफी अच्छे लडाके होते थे। हमने भी सोचा था कि आप भी स्पार्टन की तरह बिहार की गरीबी और भ्रष्‍ट व्यवस्था से लडेंगे।
एक स्पार्टन के साथ स्पार्टन ही होता है। आपके मंत्रीमंडल में भी एक दो को छोडकर कोई भी आप जैसा नहीं दिख रहा। आपको जनता के सपनों को पूरा करने के लिए एक मजबूत टीम बनानी चाहिए थी। आपके कार्यकाल के बचे हुए दो सालों में क्‍या कुछ हो पाएगा ये आप भी जानते है ।
हमने इधर कुछ समाचार पत्रिकाओं में आपसे संबंधित कुछ लेख पढे। जॉच पडताल करने पर पता चला कि उन लेखों के तथ्य बिल्कुल सही हैं।
नीतीश जी, जात-पात बिहार के लिए कोढ है। नया बिहार इनके बिना दिखना चाहिए। हम छात्र हैं और कम से कम हमें तो जात.पात वाला बिहार नहीं चाहिए। बिहार का विकास करना है तो आप जात-पात छोडें। लालू जी को हटाने के बाद हमने आपमें उम्‍मीदें देखीं थीं। नीतीश जी बिहार को गंदी राजनीति की नही बल्कि एक मजबूत नीति की जरुरत है।
अब आप काम करके दिखाएं। आप कहते है कि बिहारियों में काफी प्रतिभा है। हम भी कहतें है कि हमारे मुख्‍यमंत्री काफी प्रतिभाशाली हैं। नीतीश जी आप हर बिहारी के दिल में हैं। आप औरों की तरह ओछी राजनीति ना करें। बडे विज्ञापनों ने कुछ नहीं होता जनता देख रही है आपके कामों को। अभी भी हमें आपसे काफी उम्‍मीदें हैं। देखा जाए तो दो वर्षों में भी काफी कुछ हो सकता है। आपमें हमारा पूरा विश्‍वास है, उसे पूरा करें।

आपका,

आलोक

Tuesday, 5 August 2008

Marjorie Kinnan Rawlings

Marjorie Kinnan Rawlings was a Pulitzer-winning author who lived in rural Cross Creek, Florida, and wrote novels and stories focusing on rural themes and settings, including The Yearling and Cross Creek.
Marjorie Kinnan was born on August 8, 1896 in Washington D.C. She graduated from the University of Wisconsin in 1918 and became a journalist. In 1919 she married her first husband, Charles Rawlings, and the two lived in New York for several years. In 1928 they left New York and bought an orange grove in Cross Creek, Florida. That same year, her first stories about rural Florida were published: "Cracker Chidlings" and "Jacob's Ladder." This began a long relationship with her editor, Maxwell Perkins of Scribner's.
She and Charles Rawlings divorced in 1933, and Marjorie remained at Cross Creek, concentrating on her writing. Her first novel, South Moon Under, about a family of Florida moonshiners, was published in 1933. Her second novel, Golden Apples, was published in 1935. Her best known work, The Yearling, about a boy who cares for an orphaned fawn, won a Pulitzer Prize for fiction in 1939 and was later adapted as a film of the same title (1946). In 1941, she married her second husband, Norton Baskin, a Florida businessman and owner of the Castle Warden Hotel in St. Augustine.
In 1942 Rawlings published Cross Creek, her autobiographical account of life in rural Florida. The book featured many of her neighbors and friends, including her longtime maid, Idella Parker, her friend Zelma Cason, her tenants the Mickens family, and her nearby neighbors the Bass and Glisson families. That same year she also published Cross Creek Cookery, sharing her passion for cooking. In 1943, Rawlings was surprised when Zelma Cason sued her for libel for the manner in which the author had portrayed Cason in Cross Creek. Although Rawlings won the initial case, the trial went to appeal and she was ordered to pay Cason $1 in damages. The case proved to be a great distraction, and it greatly soured Rawlings towards Cross Creek.
For almost seven years, from 1947 until her death in 1953, Rawlings spent part of each year in Van Hornesville, New York, working on her final novel, The Sojourner (1953)। When in Florida, she spent most of her time at the Crescent Beach home she and Baskin called "The Cottage." She died on December 14, 1953.

#Lokaawaz Team

Sunday, 22 June 2008

Views on globalization

Chomsky made early efforts to critically analyze globalization। He summarized the process with the phrase "old wine, new bottles," maintaining that the motive of the élites is the same as always: they seek to isolate the general population from important decision-making processes, the difference being that the centers of power are now transnational corporations and supranational banks. Chomsky argues that transnational corporate power is "developing its own governing institutions" reflective of their global reach.

According to Chomsky, a primary ploy has been the co-opting of the global economic institutions established at the end of World War II, the International Monetary Fund (IMF) and the World Bank, which have increasingly adhered to the "Washington Consensus," requiring developing countries to adhere to limits on spending and make structural adjustments that often involve cutbacks in social and welfare programs. IMF aid and loans are normally contingent upon such reforms. Chomsky claims that the construction of global institutions and agreements such as the World Trade Organization, the General Agreement on Tariffs and Trade (GATT), the North American Free Trade Agreement (NAFTA), and the Multilateral Agreement on Investment constitute new ways of securing élite privileges while undermining democracy। Chomsky believes that these austere and neoliberal measures ensure that poorer countries merely fulfill a service role by providing cheap labor, raw materials and investment opportunities for the first world. Additionally, this means that corporations can threaten to relocate to poorer countries, and Chomsky sees this as a powerful weapon to keep workers in richer countries in line.

Chomsky takes issue with the terms used in discourse on globalization, beginning with the term "globalization" itself, which he maintains refers to a corporate-sponsored economic integration rather than being a general term for things becoming international. He dislikes the term anti-globalization being used to describe what he regards as a movement for globalization of social and environmental justice. Chomsky understands what is popularly called "free trade" as a "mixture of liberalization and protection designed by the principal architects of policy in the service of their interests, which happen to be whatever they are in any particular period." In his writings, Chomsky has drawn attention to globalization resistance movements. He described Zapatista defiance of NAFTA in his essay "The Zapatista Uprising." He also criticized the Multilateral Agreement on Investment, and reported on the activist efforts that led to its defeat. Chomsky's voice was an important part of the critics who provided the theoretical backbone for the disparate groups who united for the demonstrations against The World Trade Organization in Seattle in November of 1999.

रे दिल गाफिल गफलत मत कर

रे दिल गाफिल गफलत मत कर,

एक दिना जम आवेगा ॥

सौदा करने या जग आया,

पूँजी लाया, मूल गॅंवाया,

प्रेमनगर का अन्त न पाया,

ज्यों आया त्यों जावेगा ॥ १॥

सुन मेरे साजन, सुन मेरे मीता,

या जीवन में क्या क्या कीता,

सिर पाहन का बोझा लीता,

आगे कौन छुडावेगा ॥ २॥

परलि पार तेरा मीता खडिया,

उस मिलने का ध्यान न धरिया,

टूटी नाव उपर जा बैठा,

गाफिल गोता खावेगा ॥ ३॥

दास कबीर कहै समुझाई,

अन्त समय तेरा कौन सहाई,

चला अकेला संग न कोई,

कीया अपना पावेगा ॥ ४॥

कबीर

Biography of Jean-Paul Sartre

Philosopher, novelist, playwright and committed journalist, Jean-Paul Sartre is the most famous representative of the existentialism in France। After the "Ecole Normale Supérieure" (rue d’Ulm), he passes his competitive examination in 1929 - it is at this time he meets Simone de Beauvoir - and is appointed to the college of Le Havre।
Heir to Descartes and influenced by the German philosophers Hegel, Marx, Husserl, and Heidegger, Jean-Paul Sartre publishes in 1943 his major philosophical work, "Being and Nothingness". This treaty of the atheistic existentialism, which is not very accessible because it is addressed to philosophers, deals with the relationship between conscience and freedom. It is structured around the topics of consciousness, of the existence, of the "For-itself" (way of being of the existing), of the responsibility of the being-in-situation, of the anguish when conscience grasps the future face its freedom, of the freedom to escape the sequence of causes and natural determinations, of the project when the conscience is projected towards future.

For Jean-Paul Sartre, God does not exist: men don’t have other choice than to take in hand their destiny through the political and social conditions under which they are.
Theatre and novel are, for Sartre, ways of diffusing his ideas through settings in real-life situation (No exit, Dirty Hands, Nausea...). He leads a committed life when he comes close to the Communist Party in 1950. Nevertheless, he keeps a critical mind and breaks with the Party in 1968. Jean-Paul Sartre refuses the Nobel Prize of literature in 1964 for "Words", an autobiographical account.

Wednesday, 5 March 2008

तेल का खेल

यह तेल का खेल है .अनाज की किल्लत ने बुश के कारनामो को जगजाहिर किया है .बुश बौखलाहट में अनाप सनाप बोल रहे है .बुश की वाणी से उनकी सामन्ती सोच का पता चलता है .अमेरिका जैसे विकसित देश के लिए ये शर्म की बात है .

आलोक मणि

सरबजीत

हम यहाँ सरबजीत को छुड़ाने की बात कर रहे है .इसके लिए सरकार और जनता दोनों प्रयासरत है .लेकिन सबसे पहले हमे ये सोचना चाहिए की यह एक सरबजीत की बात नहीं है भारत के ऐसे सैकडो सरबजीत पाकिस्तान की जेलों में बंद है और पाकिस्तान के कई सरबजीत भारत की जेलों में .हम किन किन को बचायेंगे .
लोगो को बचाने की बजाये अगर हम दोनों देश के बिच के रिश्तो को बेहतर करे तो वो ज्यादा अच्छा होगा .तब कोई सरबजीत न पाकिस्तान की जेल में होगा न भारत की जेल में .

आलोक मणि

THE GRAVE AND THE ROSE

The Grave said to the Rose,
'What of the dews of dawn,
Love's flower, what end is theirs?'
'And what of spirits flown,
The souls whereon doth close
The tomb's mouth unawares?'
The Rose said to the Grave.
The Rose said, 'In the shade
From the dawn's tears is made
A perfume faint and strange,
Amber and honey sweet.'
'And all the spirits fleet
Do suffer a sky-change,
More strangely than the dew,
To God's own angels new,'
The Grave said to the Rose.

VICTOR HUGO.